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जनतंत्र के खेल में तमाशबीन जन

mati ki bani
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उनसे पूछिये उनके प्रधान जी कहां, किस खेमे में गये। अचरज भरी निगाह से देखेंगे। उन्‍हें लगेगा कैसा गैर जरूरी सवाल आपने पूछ दिया। वे अपने वोट से अपना प्रधान जरूर चुनते हैं लेकिन प्रधान अपना वोट देने के लिए उनसे राय मशविरा भी नहीं करते। वे आम जन हैं। इस खेल के बस तमाशबीन। पिछले एक महीने या इससे भी पहले की सियासी हलचल में इनकी कोई भूमिका नहीं बनी। प्रधान जी तीर्थयात्रा भी कर आये। बड़ी बड़ी, इसकी उसकी गाडि़यों में धूल उड़ाते घूमते रहे। किसकी जुर्रत या किसकी गरज जो उनसे कोई सवाल करे। पंचायतीराज व्‍यवस्‍था की असली मलाई के हकदार तो आखिर प्रधान जी ही हैं। अलबत्‍ता यह व्‍यवस्‍था आम जन की ताकत पर ही खड़ी होती है। किसी भी गांव के विकास की कार्ययोजना कागज पर ही सही आमसभा में ही पारित होती है। पर प्रधान जी क्‍यों पूछे उनसे, किसे वोट दें। रिवाज जो नहीं है। प्रधान जी अपना वोट अपने हिसाब से अपने समीकरण, गुणा, भाग और बहुत कुछ जो हवा में चर्चा में है, लेने-देने के हिसाब से तय करेंगे। गुरुवार को गोरखपुर व महराजगंज में हुए विधान परिषद के स्‍थानीय निकाय प्राधिकारी चुनाव का नजारा यही था। किसान खेतों में थे। ब्‍लाकों के पोलिंग बूथों पर प्रत्‍याशियों के समर्थक भर थे, वोटों का हिसाब किताब जोड़ते हुए। वोट डालने जाते प्रधान और बीडीसी मेम्‍बरों को अंतिम बार सहेजते हुए। शंका जो थी कि अंदर जाकर वोटर का मन न बदल जाय। कहीं खेल न हो जाय पहली वरीयता के वोट की जगह दूसरी वरीयता का वोट न पड़ जाय। अनिश्चिंता और अविश्‍वास के इस खेल में बाजी पता नहीं किसके सर गयी। धुरहू, मंगरू, किशना और रामसुभग को क्‍या लेना देना। जनतंत्र का राजा अपनी गति चल रहा है और भीलों ने बांट लिये वन।

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